टाटा भारत की सबसे पुरानी और कामयाब कंपनियों में आती है। हर कामयाबी से पहले इंसान को बहुत सारी असफलताओं से गुजरना पड़ता है। आज टाटा कंपनी इतनी नाकामयाबियों के बावजूद भी भारत की सबसे श्रेष्ठ कंपनी बन गयी है। पर एक समय ऐसा भी था जब एक महिला को कंपनी बचाने के लिए अपने बेशकीमती सामान को बेचना पड़ा था। आइये जानते है कंपनी से जुड़े इतिहास को।

जमशेदजी टाटा ने रखी थी नींव
औद्योगिक जगत की शान टाटा समूह की नींव जमशेदजी टाटा के नाम भारतीय इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। उनका जन्म 3 मार्च 1839 को एक भारतीय पारसी परिवार में हुआ था। 1858 में ग्रेजुएशन करने के बाद उन्होंने अपने पिता की कंपनी में काम संभालना शुरू किया।

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मात्र 21000 से शुरू किया था बिजनेस
सन 1868 में उन्होंने 21,000 रुपए के साथ एक दिवालिया तेल मिल खरीद कर उसमें रूई का कारखाना शुरू किया। उन्होंने अपने जीवन के चार लक्ष्य निर्धारित किए। पहला एक लौह और स्टील कंपनी खोलना, दूसरा एक वल्र्डक्लास इंस्टीट्यूशन स्थापित करना, तीसरा एक होटल खोलना और चौथा एक हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्लांट स्थापित करना। अपने जीवन में वह सिर्फ ताजमहल होटल की स्थापना कर एक ही लक्ष्य पूरा कर पाए। हालांकि टाटा समूह की आने वाली पीढियों ने उनके सभी लक्ष्य पूरे किए।

कंपनी को बचाने के लिए बेच दिए थे सामान
टाटा कंपनी का वह दौर भी आया जब कंपनी को बचाने ले लिए लेडी मेहरबाई टाटा को अपना बेशकीमती सामान बेचना पड़ा था। लेडी मेहरबाई टाटा जमशेदजी टाटा के बड़े बेटे सर दोराबजी टाटा की पत्नी थी। सर दोराबजी टाटा ने अपनी पत्नी लेडी मेहरबाई के लिए लंदन के व्यापारियों से 245.35 कैरेट जुबली हीरा खरीदा था। 1900 के दशक में इस हीरे की कीमत एक लाख पाउंड थी।

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लेडी मेहरबाई ने हीरे को गिरवी रखा
साल 1924 में टाटा स्टील के सामने नकदी का संकट आ गया। कंपनी के पास कर्मचारियों के वेतन के पैसे नहीं बचे थे। उस वक्त लेडी मेहरबाई के लिए अपने संपत्ति से ज्यादा कंपनी को बचाना सही लगा और उन्होंने उस बेशकीमती हीरे समेत अपनी पूरी संपत्ति इंपीरियल बैंक में गिरवी रख दी। और उससे मिले पैसों को कंपनी चलाने में लगा दिया। काफी समय बाद हालात सुधरे और आज टाटा समूह के काम के बदौलत आज कंपनी बुलंदियों के शिखर पर है।