सनातन धर्म में मंदिरों की परम्परा काफी पूरानी है। भारत धर्म, भक्ति, अध्यात्म और साधना का देश है। यहां अतिप्राचीन समय से पूजा-स्थल के रुप में मंदिर का विशेष महत्व रहा है।
ऐसे में देश में आज लाखों करोड़ों मंदिर है। भारत में बने इन मंदिरों में कई मंदिर आज भी रहस्य बने हुए हैं। दरअसल इनका रहस्य आज भी लोगों के लिए एक अनसुलझी पहेली है यानि ये मंदिर समझ से परे हैं। आज हम आपको ऐसे ही मंदिर के बारे में बताएंगे जहाँ श्री कृष्ण की खंडित मूर्ति की पूजा की जाती है। इस मंदिर में खुदखुशी करने वाले पंडित की जान बचाने खुद काली माँ प्रकट हो गई। इस मंदिर को दक्षिणेश्वर काली मंदिर के नाम से जाना जाता है। आइये जानते है इस मंदिर और दक्षिणेश्वर काली की कथा के बारे में।
दक्षिणेश्वर काली मंदिर बनने का रहस्य और दक्षिणेश्वर काली की कथा
दक्षिणेश्वर काली मंदिर का बहुत बड़ा इतिहास है और कई मान्यताएं भी है। 1847 की बात है जब देश में अंग्रेजों का शासन था। पश्चिम बंगाल में रानी रासमनी नाम की एक बहुत ही अमीर विधवा थी। उनके जीवन में सबकुछ था मगर पति का सुख नहीं था। रानी रासमनी जब उम्र के चौथे पड़ाव पर आईं तो उनके मन में सभी तीर्थों के दर्शन करने का खयाल आया। रानी रासमनी की देवी माता में बहुत बड़ी श्रद्धा थी। उन्होंने सोचा कि वह अपनी तीर्थ यात्रा की शुरुआत वाराणसी से करेंगी और वहीं रहकर देवी का कुछ दिनों तक ध्यान करेंगी।
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रानी रासमनी के साथ अजीब घटना घटी
रानी रासमनी के जाने से ठीक एक रात पहले उनके साथ एक अजीब घटना घटी। उन्हें रात में एक सपना आया। कहा जाता है उनके सपने में देवी काली प्रकट हुई और उनसे कहा कि वाराणसी जाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम गंगा के किनारे मेरी प्रतिमा को स्थापित करो। एक सुंदर मंदिर का निर्माण कराओ। “मैं उस मंदिर की प्रतिमा में खुद प्रकट होकर श्रद्धालुओं की पूजा को स्वीकार करुंगी” तुरंत ही यह सपना देखकर रानी की आंख खुली।
गंगा किनारे माँ काली का बनाया मंदिर
उस सपने के बाद उन्होंने वाराणसी जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया। और गंगा के किनारे मां काली के मंदिर के लिए जगह खोजना शुरू कर दिया। कहते हैं कि जब रानी इस घाट पर गंगा के किनारे जगह की तलाश करने आईं तो उनके अंदर से एक आवाज आई कि हां इसी जगह पर मंदिर का निर्माण होना चाहिए। मंदिर बनाने का काम तेजी से शुरु हो गया। 1847 में शुरू हुआ मंदिर का काम 1855 में पूरा हुआ।
परमहंस को मंदिर का पुजारी बनाया गया
इस मंदिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस को मां काली साक्षात दर्शन दी थीं। इस बारे में कहा जाता है कि रामकृष्ण परमहंस को विश्वास था कि कठोर सधाना से मां काली का साक्षात्कार किया जा सकता है। इस कारण इन्होंने पूरी निष्ठा के साथ मां काली की पूजा-अर्चना किया करते थे।इनकी भक्ति को देखते हुए इन्हें दक्षिणेश्वर काली मंदिर का पुजारी बनाया गया। कहते हैं कि 20 वर्ष की आयु में रामकृष्ण परमहंस ने अपनी अनवरत साधना के बल पर मां काली के साक्षात दर्शन किए।
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परमहंस का माता के लिए अथाह प्रेम
रामकृष्ण परमहंस भूखे-प्यासे सिर्फ मां काली को निहारते रहते थे और भीतर ही भीतर यह सोचते रहते कि कब उनकी आराध्या उन्हें दर्शन देंगी। रामकृष्ण परमहंस, मां काली के सामने रोते रहते, जैसे कोई बालक वाकई अपनी मां से बिछुड़ गया हो। वह अपनी आराध्या से बस यही कहते रहते थे कि वे उन्हें अपना असली स्वरूप दिखाएं, उन्हें दर्शन दें। मंदिर में उपस्थित अन्य लोग उन्हें पागल तक समझ बैठे थे।
खुद प्रकट होकर माँ काली ने बचाया परमहंस को
अपनी मां से दूर रहते हुए परमहंस बेहद निराश और हताश हो चुके थे। वह काली मां के चरणों में बैठकर खड्ग से अपना सिर काटने ही वाले थे कि स्वयं मां काली ने उनका हाथ पकड़ उन्हें रोक दिया। उस दिन के बाद जब तक वह जीवित रहे तब तक मां काली उनकी अपनी माता और सखा के तौर पर उनके साथ रहीं।
खंडित मूर्ति की पूजा
दक्षिणेश्वर काली मंदिर के प्रांगण में मां काली के अलावा शिव और कृष्ण की मंदिर भी हैं। जहां एक ओर सामान्य मान्यता के अनुसार घरों में खंडित मूर्ति रखना अशुभ माना जाता है। लेकिन भगवान कृष्ण को समर्पित राधा-गोविंद मंदिर में कृष्ण की खंडित मूर्ति की ही पूजा की जाती है।
जानिए खंडित मूर्ति की पूजा करने के पीछे का रहस्य
इसके पीछे भी एक कथा है। एक बार की बात है, मंदिर बनकर तैयार था। जन्माष्टमी के अगले दिन राधा-गोविंद मंदिर में नंदोत्सव की धूम थी। दोपहर की आरती और भोग के पश्चात कृष्ण को उनके शयन कक्ष में ले जाते समय कृष्ण की मूर्ति धरती पर गिर गई। जिसकी वजह से उनका पांव टूट गया। सभी के लिए ये अमंगल का क्षण था। सभी भक्तजन इसी पशोपेश में थे कि उनसे ऐसा क्या अपराध हुआ है जो कृष्ण उनसे नाराज हो गए हैं। वह आने वाले प्रकोप से भयभीत थे।
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रानी ने सभा बुलाई
रानी रासमणी भी बेहद चिंतित थीं। उन्होंने ब्राह्मणों की सभा बुलाई और उनसे विचार-विमर्श किया कि इस खंडित मूर्ति का क्या किया जाए। ब्राह्मणों ने यह सुझाव दिया कि इस मूर्ति को जल में प्रवाहित कर इसके स्थान पर नई मूर्ति को विराजित किया जाए। लेकिन रासमणी को ब्राह्मणों का यह सुझाव पसंद नहीं आया। अंतत: वह रामकृष्ण परमहंस के पास गईं, जिनके भीतर उनकी गहरी आस्था थी। रामकृष्ण परमहंस ने उनसे जो कहा वह अद्भुत था।
जानिए खंडित मूर्ति को लेकर परमहंस ने क्या कहा
रामकृष्ण का कहना था कि जब घर का कोई सदस्य विकलांग हो जाता है या माता-पिता में से किसी एक को चोट लग जाती है तो क्या उन्हें त्याग कर नया सदस्य लाया जाता? नहीं बल्कि उनकी सेवा की जाती है। बस फिर क्या था रासमणी को परमहंस का यह सुझाव बहुत पसंद आया और उन्होंने निश्चय किया कि मंदिर में कृष्ण की इसी मूर्ति की पूजा की जाएगी और साथ ही उनकी देखभाल भी होगी।